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ईश्वर का जन्म कैसे व क्यों एवं उसका भविष्य ….डा श्याम गुप्त

drshyam jagaran blog
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ईश्वर का जन्म कैसे व क्यों एवं उसका भविष्य ?—अंक-१

जितना ज्ञान प्राप्त करता हूँ उतनी ही जिज्ञासा और बढ़ती जाती है | मुझे स्वयं पर विश्वास है | इंसान पर और इंसानियत पर श्रद्धा भी है और विश्वास भी, ज्ञान पर भी और शास्त्रों पर भी, ईश्वर पर भी | परन्तु यह जिज्ञासा कि ‘ ईश्वर का जन्म की व क्यों ? मुझे अपने अज्ञान से प्रत्यक्ष करा देती है| अभी तक का मेरा अध्ययन, अनुभव और निष्कर्ष मुझे हमेशा और हर बार एक ही उत्तर देते हैं वह यह कि ‘ ईश्वर मानव मस्तिष्क की परिकल्पना है।’ यद्यपि इस विषय पर सभी के अपने-अपने, भिन्न-भिन्न उत्तर हो सकते हैं, अपने ज्ञान व अनुभव, श्रृद्धा व विश्वास के अनुसार, और यही बात हमें निरंतर अपने को अद्यतन, संशोधित और बेहतर करने को प्रेरित करती रहती हैं तथा निश्चित ही हमें एक-दूसरे से सीखने और समझने की राह प्रशस्त करती हैं | यद्यपि तर्कहीन विश्वास व अंधश्रृद्धा एवं केवल प्रत्यक्ष ज्ञान, भौतिक ज्ञान-विज्ञान, को ही सर्वोपरि मानना जैसी अवधारणाएं, इस प्रक्रिया को अवरोधित भी करती हैं |
ईश्वर का जनक कौन है, इस विचार या उक्ति के सार्वजनिक प्रतिरूपण से प्रतिध्वनित होता है कि हमारी मान्यता है कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है, लेकिन हम सर्वत्र ‘ईश्वर नाम की अवधारणा’ की एक वृहद् रूप में सर्वव्यापी उपस्थिति पाते हैं, इसलिए प्रश्न उठाते हैं कि ‘तो फिर इसका जन्म कैसे हुआ?’ इसके दो अभिप्रायः निकलते हैं— (१). यह कि हम ईश्वर से संबंधित अपनी स्वयं की मान्यताओं और निष्कर्षों पर पूरी तरह सुनिश्चित व स्पष्ट नहीं हैं, कुछ उलझाव हैं, प्रश्न हैं, विभ्रम हैं जिनके कारण ईश्वर की अवधारणा पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाती। (२). यह किस्पष्ट मान्यताएं बना लेने के बावज़ूद हम इन मान्यताओं के लिए मजबूत आधार की तलाश में हैं और इन सबके बारे में विविध चर्चा-परिचर्चा एवं विभिन्न ज्ञानार्जन द्वारा इस अवधारणा पर अपने को अधिक सुनिश्चित करना चाहते हैं। अपने निष्कर्षों और मान्यताओं को पुष्ट करना चाहते हैं।
इस सामान्य जिज्ञासा का एक सामान्य भौतिकवादी उत्तर हो सकता है, ईश्वर के अस्तित्व के नकार के साथ कि “ईश्वर की अवधारणा, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है, जिस तरह की मनुष्य का मस्तिष्क भी इन्हीं की उपज है।”उपरोक्त कथन, `ईश्वर मानव मस्तिष्क की परिकल्पना है’ से थोड़ा भिन्न अर्थ वाला है |  वाक्यांश`ईश्वर मानव मस्तिष्क की परिकल्पना है’, जहां एक ओर ईश्वर के अस्तित्व के खिलाफ़ जाना चाह रहा है, वहीं यह उसकी ‘मस्तिष्क की परिकल्पना’ के सामान्यीकृत स्पष्टीकरण के लिए उस भाववादी प्रत्ययवादी ( idealistic ) विचारधारा या दर्शन को ही अपना आधार बना रहा है जिसकी  स्वाभाविक परिणति ईश्वर के अस्तित्व को ही प्रमाणित करती है, जो कि चेतना ( मानव मस्तिष्क ) को ही प्राथमिक और मूल मानती है। हम ‘मानव मस्तिष्क’ यानि चेतना को अधिक महत्त्व दे रहे होते हैं, उसे मूल या प्राथमिक मान रहे होते हैं अर्थात-जिस तरह मानव परिवेश की वस्तुगतता मानव चेतना की पैदाइश है, उसी तरह इस ब्रह्मांड़ की वस्तुगतता के पीछे भी किसी चेतना, परम चेतना, ईश्वर जैसी किसी चेतना का हाथ अवश्य ही होगा।
वहीं भौतिकवादी दर्शन की स्थापनाओं में – चेतना को द्वितीय तथा पदार्थ को प्राथमिक और मूल साबित करता है। यह स्पष्टता के साथ जाना जाता है कि मूल में, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की वे परिस्थितियां ही है जिनसे मनुष्य का मस्तिष्क और उसकी सभी अवधारणाएं जिनमें ईश्वर की अवधारणा भी शामिल है, विकसित हुई हैं। यह भौतिकवादी (materialistic) विचारों के आधार तक पहुँचने का मार्ग है |
ईश्वर की अवधारणा की व्यापक स्वीकार्यता —हम अपने चारों ओर की दुनिया में ईश्वर नाम की इस अवधारणा की सर्वव्यापी व सबको प्रभावित करती हुई उपस्थिति पाते हैं| अपने चारों ओर एक विशिष्ट पृष्ठभूमि, शिक्षा, सामाजिक परिवेश व अनुभव रखने वाले अधिकाँश को हम आस्तिक पाते हैं और वे ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में कोई प्रश्न या द्वंद भी नहीं रखते, उनके लिये ईश्वर ठीक उसी तरह साफ-साफ मौजूद है जैसे सूर्य, तारे, समुद्र और आसमान | तो क्या इस प्रश्न को उठाने वालों में विचार प्रक्रिया सामान्य से हट कर है, क्यों ? जो एक व्यक्ति देख-समझ पाता है वह अन्य नहीं देख-समझ पाते और क्यों जिस तरह के अनुभवों की बात वे करते हैं, अन्य को नहीं मिलते, विचार प्रक्रियाओं में इतनी बड़ी भिन्नता क्यों है ?
आस्तिकता के आधार का आधार —
मनुष्य सामान्यतः अपने जीवन एवं जीवन-यापन के लिए पूर्व-उपस्थित परिवेशीय सहज-रूपता, सहजवृत्ति के व्यवहार पर अवलंबित होता है और सभी चीज़ें जैसे चलना, बोलना, व्यवहार के तरीके आदि, अपने परिवेशगत लोगों से सीखता है। इन्हीं से वह आस्थाओं, परंपराओं, विचारों आदि को भी ग्रहण करता है। उसके पास अपना स्वयं का जन्मजात कुछ नहीं होता, इसी पृष्ठभूमि से प्राप्त यही व्यवहार-स्वरुप उसके अपने बन जाते हैं। सामान्यतः सभी अपने परिवेश के अनुकूलन में होते हैं, इसीलिए सामान्यतः सभी आस्तिक आधारों के साथ होते हैं।        इसी अनुकूलन की प्रक्रिया के साथ-साथ एक और मानवीय प्रक्रिया चल रही होती है। व्यक्ति अपने आसपास की चीज़ों के प्रति असीम जिज्ञासाओं से पूर्ण, हर वस्तु को जांचने-परखने, जानने-समझने की प्रक्रिया में होता है। बोलना प्रारंभ करते ही उसके सवाल परिवेश के माथे चढ़कर बोलने लगते हैं। सामान्यतः हर परंपरा पर, आस्था के हर आधारों पर सवाल उठाए जाते हैं, जो नवविचारों की संभावनाओं  के बीजरूप होती हैं | समान्यतः मनुष्य के इस जिज्ञासु स्वभाव को परिवेश की अपरिवर्तनीय निश्चित-धर्मिता की कठोरता से दबा दिया जाता है, या विविध समाधानों की श्रृंखलाओं से समाधित कर दिया जाता है और उसे अनुकूलित होने दिया जाता है। अर्थात परिवेश द्वारा आस्तिक नियमबद्ध प्रकार से तैयार किए जाते हैं। सामान्यतः तो पारिस्थितिक अनुकूलन ही किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान बन जाता है। वह इसी अनुकूलन के साथ रहने और जीने का आदी हो जाता है, उसकी यह अनुकूलित विचार-प्रक्रिया इसी अनुकूलन के साथ सहजता अनुभव करती है। समान वैचारिक-व्यवहारिक लोगों के बीच एक सांमजस्यता पैदा करती है, आर्थिक और सामाजिक सम्बद्धता पैदा करती है| अतः वह अपने उठते हुए संशयों को दबाए रखने को बद्ध होजाता है, रूढ़ होता जाता है, और सामान्य सामूहिक चेतना के अनुरूप अपनी व्यवहार-सक्रियता को ढ़ाल लेता है और यह उसके वैयक्तिक अहम् का हिस्सा बन जाता है| तब वह इस अनुकूलनता के खिलाफ़ व्यक्त विचारों के प्रति अपनी तार्किकता व विशिष्ट अनुभवों द्वारा विविध एक पक्षीय अभिव्यक्तियों का संसार रचता है।
अधुनातन ज्ञान का प्रभाव व नव-विचारों की संभावनाएं— आस्था व अनास्था के बीज, विभिन्न व्यक्तित्वों की उत्पत्ति ….. आज के आधुनिक हालात में मानव जाति के अधुनातन ज्ञान के साथ कदमताल बैठाने के लिए एक औपचारिक आधुनिक शिक्षा प्रणाली अस्तित्व में है। ( यद्यपि वस्तुतः यह हर युग में, युग संधि में होता है) | शिक्षा व धनार्जन हेतु वह बाहर निकलता है, परिवेश व्यापक बनता है, समाज की अन्य परिधियों में पहुंचता है। ये सब मिलकर उस पर अपना प्रभाव डालते हैं।         ये सब बाहरी प्रभाव प्रायः मानव के आस्तिक-अनुकूलन में मदद ही करते हैं। प्रायः बाहरी समाज, शिक्षक सब इसी आस्तिक अनुकूलनता के साथ होते हैं। हाँ यह अवश्य होता है कि व्यक्ति के दिमाग़ में दो विभाग बन जाते है– एक शिक्षा-विज्ञान को ऊपरी तरह रट-रटाकर अपने लिए रोजगार पाने के जरिए का और –दूसरा उसी पारंपरिक आस्तिक संस्कारों से समृद्ध जहां सभी के जैसा ही होना अधिक सहज और आसान व स्वाभाविक सा होता है।        इस तरह की स्थिति में वैयक्तिक नव-विचारों की वे संभावनाएं उत्पन्न होती हैं जो व्यक्ति को अधिक अद्यतन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त करने की राह पर ले जाएं। अतः  इन परिस्थितियों में ही आस्था या अनास्था के बीज मौजूद होते हैं, क्योंकि समाज में, परिवेश में, सभी तरह की धाराएं प्रवाहित हो रही होती हैं। कौन किससे अछूता रह जाए, और कौन कब किसके चपेट में आ जाए, यह उसकी विशिष्ट पारिस्थितिकी और संयोगों पर निर्भर करता है। सामान्यतः एक जैसी लगती परिस्थितियों के बीच भी कई विशिष्ट सक्रियताएं और प्रभाव पैदा होती हैं, वे सभी कोएक जैसा नहीं रख पाती और भिन्न-भिन्न व्यक्तित्वों की उत्पत्ति होती हैं, आस्थावादी व अनास्थावादी आदि |

—क्रमश—अंक-२ .

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