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सरस्वती – वसंत पंचमी पर विशेष…डा श्याम गुप्त

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DSCN0834 सरस्वती – वसंत पंचमी पर विशेष

पाश्चात्य विद्वानों के आक्षेप ठीक ही हैं यद्यपि उनके यथार्थ को वे समझ नहीं पाए हैं कि भारत ने नश्वर मनुष्य और उसके नश्वर अर्थहीन कृत्यों को व्यर्थ स्थायी करने का प्रयत्न नहीं किया। भारत पर भगवती भारती की सदा समुज्ज्वल कृपा रही। अमृतपुत्र मानव को उन्होंने नित्य अमरत्व का मार्ग दिखाया। मानव ने अपनी क्रिया का आधार उस नित्यतत्त्व को बनाया, जहाँ क्रिया नष्ट होकर भी शाश्वत हो जाती है। इसीलिये भारत में कला व ज्ञान प्राय: मन्दिरों से सम्बंधित एवं व्यक्त रहे हैं | कला उस चिरन्तन ज्योतिर्मय ज्ञान-तत्व से एक होकर धन्य हो गयी। वह स्थूल जगत में भले नित्य न हो, अपने उद्गम को नित्य जगत में पहुँचाने में सफल हुई। सरस्वती कला व वाणी की देवी हैं कला व वाणी दोनों ही सतत चिरंतन, निरंतर प्रवहमान सलिला की भांति होती हैं…होनी चाहिए, सरस्वती का अर्थ भी है बहते रहना … इसी भाव में उन्हें नदी रूप भी दिया गया है | ऋग्वेद में सरस्वती केवल ‘नदी देवता’ के रूप में वर्णित है उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाये गए है।

सरस्वती —एक देवी रूप…

सरस्वतीहिन्दू धर्म की प्रमुख देवियों में से एक हैं । वे ब्रह्मा की मानसपुत्री हैं जो विद्या की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं। इनका नामांतर ‘शतरूपा’ भी है।

आदिशक्ति अर्थात ब्रह्म के अपरा-शक्ति नारी रूप के त्रित-विश्व रूप… महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली का… सृजन व अध्यात्म रूप है सरस्वती इसीलिये वे कला, ज्ञान व विद्या की देवी हैं| वे अनादि शक्ति भगवान ब्रह्मा के कार्य की सहयोगिनी हैं। उन्हीं की कृपा से प्राणी कार्य के लिये ज्ञान प्राप्त करता है। उनका कलात्मक स्पर्श कुरुप को परम सुन्दर कर देता है। वे हंसवाहिनी हैं जो सदविवेक का रूप है। सदसद्विवेक ही उनका वास्तविक प्रसाद है जो मानव को प्रत्येक कार्य व कृतित्व व चिंतन में परमहंस भाव में सत्कर्म रत रखता है ।

वे धनधान्य उत्पादकता की एवं सम्पन्नता की देवी भी हैं इसीलिये उनका वसंत ऋतु से सम्बन्ध है और वे ऋतुओं की व प्रेम की देवी एवं मयूर वाहिनी हैं | वे बोली व भाषा व लिपि ( संस्कृत ) की आरम्भ करने वाली कही गयी हैं | अतः वे काव्य, साहित्य, संगीत व गायन की देवी हैं|

ये शुक्लवर्ण, श्वेत वस्त्रधारिणी, वीणावादनतत्परा तथा श्वेतपद्मासना, हंसवाहिनी व मयूर वाहिनी कही गई हैं। चार हाथ, धवल कांति, गौरवर्णा, सौम्य आनन वाली मां सरस्वती के बारह नाम : भारती, सरस्वती, शारदा, हंसवाहिनी, जगती, वागीश्वरी, कुमुदी, ब्रह्मचारिणी, बुद्धिदात्री, वरदायिनी, चंद्रकांति व भुवनेश्वरी कहे गए हैं । द्वादश सरस्वतियों की कल्पना महाविद्या, महावाणी, भारती, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, महाधेनु, वेदगर्भा, ईश्वरी, महलक्ष्मी, महकाली और महासरस्वती के नाम से भी की गई है। सरस्वती शत-नामावली भी प्रसिद्द है | सरस्वती मूल रूप से भारतीय देवी हैं परन्तु प्राचीन प्रागैतिहासिक, पौराणिक काल में जो भूमि-खंड बृहद भारत एवं जम्बू द्वीप से सम्बंधित रहे हैं वे उन स्थानों देशों धर्मों की भी देवी हैं|

रूस आदि पाश्चात्य देशों में वे ब्रह्मा की पत्नी एवं मोक्ष व स्वर्गीय आनंदानुभूति की देवी हैं व चमत्कारों से भी जुडी हुई हैं | वे स्वर्ग व पृथ्वी के विवाह सम्बन्ध की देवी हैं| अतः रूस में विवाह-समारोह में परम्परागत हंसों की परम्परा का महत्त्व है |

तिब्बतीय देश भूटान में भी में भी सरस्वती का देवी रूप का महत्त्व दर्शाया गया है जहां वे बज्र-सरस्वती है जो लाल नीले व श्वेत –तीन चेहरे व छ हाथों वाली रौद्र रूप वाली हैं व गुप्त शक्तियों की देवी | दायें हाथों में कमल, तलवार एवं व वान्सुरी य कलम है तथा बाएं हाथों में चक्र, वीणा व नरमुंड है | शायद यह सरस्वती का आदि-मूल रूप, आदि-शक्ति रूप है |

भूटान में सरस्वती को ओक्तोपस के साथ वीणा वादन करते दिखाया गया है

सरस्वती पूजन—–

श्री कृष्ण ने भारतवर्ष में सर्वप्रथम सरस्वती की पूजा का प्रसार किया। सरस्वती ने राधा के जिव्ह्याग्र भाग से आविर्भूत होकर श्री कृष्ण को पति बनाना चाहा। कृष्ण ने सरस्वती से कहा—“मेरे अंश से उत्पन्न चतुर्भुज नारायण मेरे ही समान हैं’’– वे नारी के हृदय की विलक्षण वासना से परिचित हैं, अत: तुम उनके पास वैकुंठ में जाओ। मैं सर्वशक्ति सम्पन्न होते हुए भी राधा के बिना कुछ नहीं हूँ। राधा के साथ-साथ तुम्हें रखना मेरे लिए संभव नहीं। नारायण लक्ष्मी के साथ तुम्हें भी रख पायेंगे। लक्ष्मी और तुम समान सुंदर तथा ईर्ष्या के भाव से मुक्त हो। माघ मास की शुक्ल पंचमी पर तुम्हारा पूजन चिरंतन काल तक होता रहेगा तथा वह विद्यारम्भ का दिवस माना जायेगा। वाल्मीकि, बृहस्पति, भृगु इत्यादि को क्रमश: नारायण, मरीचि तथा ब्रह्मा आदि ने सरस्वती-पूजन का बीजमन्त्र दिया था।

सरस्वती और शाप —–

लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा – नारायण के निकट निवास करती थीं। एक बार गंगा ने नारायण के प्रति अनेक कटाक्ष इससे सरस्वती रुष्ट होगयी, सरस्वती ने लक्ष्मी को निर्विकार जड़वत् मौन देखा तो जड़ वृक्ष अथवा सरिता होने का शाप दिया। उसने गंगा को पापी जगत का पाप समेटने वाली नदी बनने का शाप दिया। गंगा ने भी सरस्वती को मृत्युलोक में नदी बनकर जनसमुदाय का पाप प्राक्षालन करने का शाप दिया। तभी नारायण भी वापस आ पहुँचे तथा कहा- परस्पर शाप के कारण तीनों को अंश रूप में वृक्ष अथवा सरिता बनकर मृत्युलोक में प्रकट होना पड़ेगा। लक्ष्मी तुम भारत में ‘तुलसी’ नामक पौधे तथा पदमावती नामक नदी के रूप में अवतरित होगी| तुम एक अंश से पृथ्वी पर धर्म-ध्वज राजा के घर अयोनिसंभवा कन्या का रूप धारण करोगी, भाग्य-दोष से तुम्हें वृक्षत्व की प्राप्ति होगी। मेरे अंश से जन्मे असुरेंद्र शंखचूड़ से तुम्हारा पाणिग्रहण होगी। किन्तु पुन: यहाँ आकर मेरी ही पत्नी रहोगी। गंगा, तुम सरस्वती के शाप से भारतवासियों का पाप नाश करने वाली नदी का रूप धारण करके अंश रूप से अवतरित होगी। अब तुम पूर्ण रूप से शिव के समीप जाओ। तुम उन्हीं की पत्नी होगी। सरस्वती, तुम भी पापनाशिनी सरिता के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होगी। तुम्हारा पूर्ण रूप ब्रह्मा की पत्नी के रूप में रहेगा। तुम उन्हीं के पास जाओ…

सरस्वती एकनदी—-

सरस्वती वैदिक नदी है, गंगा से पूर्व यह भारतीय-भूखंड की प्रमुख नदी थी | वेदों में इसे नदीतमा कहा गया है | वस्तुतः यह आदि नदी है पूर्व वैदिक सभ्यता हड़प्पा सभ्यता की अधिकाँश बस्तियां विलुप्त सरस्वती के तट क्षेत्रों पर पायी जाती हैं हड़प्पा सभ्यता मूलतः सरस्वती सभ्यता थी| द्वापर युग के प्रारंभ में यह नदी लुप्त होगई एवं थार के रेगिस्तान में आज यह एक शुष्क भूगर्भीय धारा की भाँति बहती है |
मानसरोवर से निकलने वाली सरस्वती हिमालय को पार करते हुए हरियाणा, पंजाब व राजस्थान से होकर बहती थी और कच्छ के रण में जाकर अरब सागर में मिलती थी। उत्तरांचल के शिवालिक पहाड़ियों में रूपण ग्लेशियर ( जिसे अब सरस्वती ग्लेशियर कहा जाने लगा है) से उद्गम के उपरांत यह जलधार के रूप में आदि-बद्री तक बहकर आती थी फिर आगे चली जाती थी| आज भी स्थानीय लोग इस स्थान को तीर्थ स्थान की भांति मानते हैं तथा आदि-बद्री से छोटी सी पतली धारा वाली जगह-जगह दिखने वाली नदी को सरस्वती कहते हैं| इसके उद्गम स्थल को अब प्लक्ष-प्रस्रवन के रूप में जाना जाता है जो यमुनोत्री के समीप है |
तब सरस्वती के किनारे बसा राजस्थान भी हरा भरा था। उस समय यमुना, सतलुज व घग्गर इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ थीं। बाद में सतलुज व यमुना ने भूगर्भीय हलचलों के कारण अपना मार्ग बदल लिया और सरस्वती से दूर हो गईं| महाभारत में सरस्वती नदी को प्लक्षवती, वेद-स्मृति, वेदवती आदि नामों से भी बताया गया ही | पारसियों के धर्मग्रंथ जेंदावस्ता में सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है। ऋग्वेद में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी।

ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का उल्लेख है,
‘इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या
असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोभया’|
कुछ मनीषियों का विचार है कि ऋग्वेद में सरस्वती वस्तुत: मूलरूप में सिंधु का ही पूर्व रूप है। क्योंकि गंगा, यमुना सरस्वती के अलावा ये सभी पांच नदियाँ आज सिन्धु की सहायक नदियाँ हैं छटवीं द्रषद्वती है, सिन्धु नदी का नाम नहीं है | ऋग्वेद में सरस्वती को सप्तसिन्धु नदियों की जननी बताया गया है | इस प्रकार इसे सात बहनें वाली नदी कहा गया है –
“उतानाह प्रिया प्रियासु सप्तास्वसा, सुजुत्सा सरस्वती स्तोभ्याभूत ||

सातवीं बहन सिन्धु होसकती है जो उस समय तक छोटी नदी रही होगी | सरस्वती के सूखने पर पांच सहायक नदियों से आपलावित होकर आज की बड़ी नदी बनी | सरस्वती और दृषद्वती परवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की नदियां कही गई हैं।

आधुनिक खोजों के अनुसार लगभग ५००० वर्ष पूर्व अरावली पर्वत श्रेणियों के उठने से उत्पन्न भूगर्भीय एवं सागरीय हलचलों में राजस्थान की भूमि उठने से यमुना जो दृशवती की सहायक नदी थी पूर्व की ओर बहकर गंगा में मिल गयी तथा सतलज आदि अन्य नदियाँ पश्चिम की ओर सिन्धु में मिल गयीं | सरस्वती के विशाल जलप्रवाह द्वारा समस्त भूमि पर उत्पन्न जलप्रलय ने स्थानीय सभ्यता का विनाश किया एवं स्वयं नदी सूख कर विभिन्न झीलों में परिवर्तित होगई | हरियाणा व राजस्थान के विभिन्न सरोवर व झीलें ब्रह्मसर, ज्योतिसर, स्थानेसर,खतसर,रानीसर,पान्डुसर; पुष्कर सरस्वती के प्राचीन प्रवाह-मार्ग में ही हैं… इस प्रकार सरस्वती विलुप्त होगई एवं द्वापर युग में सरस्वती में जल प्रवाह कम रह जाने से पर राजथान का थार मरुस्थल एवं कच्छ का रन बन गए| द्वापर के अंत में सागरीय हलचल में गुजरात जो सागर में एक द्वीप था उस पर बसी द्वारका समुद्र में
समा गयी |

त्रिवेणी और प्रयाग में संगम—-

वैज्ञानिकों के अनुसार भूगर्भी बदलाव के कारण जमीन ऊपर उठी एवं सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया, सम्मिलित जल गंगा में जाने लगा, इसी वज़ह से गंगा के पानी की महत्ता हुई| इसलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम-त्रिवेणी कहा जाने लगा | इस विषय पर हम कुछ तथ्य दृष्टिगत करेंगे तत्पश्चात सरस्वती के प्रयाग पर होने की विवेचना करेंगे ——-
——-१९वीं सदी के प्रारम्भ में एक इटली निवासी यात्री ने संगम पर किले की चट्टान के नीचे से नीले पानी की पतली धरा निकलती हुए देखी जो संगम में मिल जाती थी परन्तु बाद में उसे नहीं देखा गया| यह सरस्वती का अवशेष होसकता है |
——- बहुत पहिले दो वरसाती नदियाँ ‘सरस्वती’ और ‘कृष्ण गंगा’ मथुरा के पश्चिमी भाग में प्रवाहित होकर यमुना में गिरती थीं, जिनकी स्मृति में यमुना के सरस्वती संगम और कृष्ण गंगा नामक धाट हैं। संभव है वह पूर्व सरस्वती का ही अवशेष भाग हो |
—– पूर्वी भारत की मुख्य नदी ब्रह्मपुत्र भारत के मैदानी भाग में ( अब बांग्ला देश व बंगाल ) यमुना नाम से ही जानी जाती है | विशाल ब्रह्मपुत्र बांग्लादेश में ग्वालंदो घाट के निकट गंगा में शामिल होती है इन दोनों के संगम से 241 किलोमीटर पहले तक इसे यमुना के नाम से बुलाया जाता है, गंगा और ब्रह्मपुत्र (यमुना) की संयुक्त धारा ही पद्मा कहलाने लगती है और चाँदपुर के निकट वह मेघना में शामिल हो जाती है।
—– गोमती नदी को आदि-गंगा कहा जाता है जिसका एक भूगर्भीय जलश्रोत से उद्गम होता है |

हिमालय श्रेणी अस्थिर पर्वत श्रेणी है यहाँ एवं इसके क्षेत्र में सदैव भूविचलन हुआ करते हैं | सरस्वती व संगम की गुत्थी के लिए हमें भारत की मुख्य नदियों सरस्वती, यमुना, ब्रह्मपुत्र व गंगा के पूर्व हिमालयी प्रागैतिहासिक इतिहास की ओर जाना पड़ेगा —-

१.जब हिमालय ऊंचा उठा नहीं था —
अर्थात भारतीय भूखंड एवं यूरेशियन भूखंड के पूर्वी भाग(तिब्बतीय-कैलाश भाग ) के आपस में जुड़ने पर उनके मध्य टेथिस सागर के लुप्त होने पर आज का गंगा-सिन्धु का मैदान एक लवणीय–सागरीय वालू का क्षेत्र था | ब्रह्मपुत्र, यमुना एवं सरस्वती आदि नदियाँ इस वालुका क्षेत्र में उत्तरी हिमाप्रदेश के हिमखंडों से बहकर इस क्षेत्र में बहती थीं | उस समय सतपुडा, महादेव, गारो आदि मध्य भारत की पर्वत श्रेणियां आपस में मिली हुईं थी अर्थात गंगा डेल्टा नहीं बना था | अतः पूर्वी-दक्षिणी मार्ग अवरुद्ध होने से सागर (आज की बंगाल की खाडी ) में जल निकासी नहीं थी |
—– अतः पश्चिम-उत्तर की तरफ से आने वाली ब्रह्मपुत्र अपने उद्गम से सीधे दक्षिण–पश्चिम गिरती हुई वालुका मैदानी भाग पार करके पश्चिम की ओर बहती हुई अरब सागर में गिरती थी जो भारतीय भाग में भुजा की भांति प्रविष्ट था |यमुना सूर्य की पुत्री है अर्थात गंगा, सरस्वती से पूर्व की नदी है, वह एवं सरस्वती भी वह उत्तर से पश्चिम बहती हुई अरब सागर में गिरती थी |

२.हिमालय की अन्य श्रेणियां उठने से हुई हलचलों—– से पश्चिमोत्तर भाग ऊपर उठा एवं यमुना पूर्व की ओर बहती हुई ब्रह्मपुत्र में गिरने लगी |
—-कालान्तर में ब्रह्मपुत्र का सीधा दक्षिण का प्रवाह अवरुद्ध होजाने से वह उच्च हिमालय की श्रेणियों में बंद होकर रह गयी एवं उसी के समांतर पूर्व की ओर ( आज के प्रवाह की भांति) बहने लगी एवं यमुना पूर्ववर्ती होकर ब्रह्मपुत्र के पूर्व प्रवाह के साथ स्वतंत्र यमुना नदी होकर बहने लगी तथा गारो पहाड़ियों के महादेव आदि सतपुडा श्रेणी से अलग होजाने पर दक्षिण की ओर रास्ता खुल जाने से बंगाल की खाडी का प्रादुर्भाव हुआ एवं यमुना पूर्वी-दक्षिणी सागर ( आज बंगाल की खाडी) में गिरने लगी | ब्रह्मपुत्र भी हिमालय के पूर्वी भाग से दक्षिण की ओर भारतीय भूमि पर उतर कर आज के बंगला देश में यमुना में मिलकर प्रवाहित होने लगी |
—पश्चिमी –उत्तरी हिमालय श्रेणियों के उठते जाने से सरस्वती नदी भी रास्ता बदलकर पश्चिम की अपेक्षा दक्षिण-पूर्व की तरफ बहकर प्रयाग के समीप यमुना में मिलने लगी |
——आदि गंगा कहलाने वाली गोमती भी उस समय प्रयाग में यमुना में गिरती थी | गोमती एक भूमिगत तालाब पातलतोड़-कुआं या आर्टीजियनवैल से निकलती है शायद स्वर्ग से आकर शिव की जटाओं में उलझकर वह हिमालय क्षेत्र में ही प्रवाहित होती रही एवं वहा से भूमिगत जल के रूप में उसका जल गोमतताल तक आता रहा अतः उसे आदिगंगा कहा गया | इसीलिये प्रयाग में त्रिवेणी की तीनों नदियों के संगम की स्मृतियाँ जनमानस में बनी रहीं |

३.सरस्वती व यमुना का पुनः मार्ग परिवर्तन—
कालान्तर में पश्चिमी भाग के निचले हिमालय की श्रेणियों के भूस्थान के उठने के कारण एवं अरावली श्रेणियों की भूमि की उठान से सरस्वती का प्रवाह अपनी समस्त सहायक नदियों सहित पुनः पश्चिम की ओर होकर वह अरब सागर में गिरने लगी | यमुना अपना प्रवाह बदलकर दृषवती नदी की सहायक के रूप में सरस्वती में ही मिल गयी | इस प्रकार थार का मरुस्थल हरा-भरा क्षेत्र हो गया प्राणियों एवं सभ्यताओं के पनपने के योग्य |
यही वह समय था जब सरस्वती-दृषवती क्षेत्र में सप्तचरुतीर्थ में प्रथम उन्नत मानव का विकास हुआ एवं नर्मदा क्षेत्र में विक्सित मानव उन्नति करता हुआ नई-नई सभ्यताएं स्थापित करता हुआ उत्तर की तरफ बढा एवं दोनों ने मिलकर एक अति उन्नत सभ्यता को जन्म दिया जो शायद हरप्पा सभ्यता, सरस्वती सभ्यता के नाम से प्रसिद्द हुई, यह वैदिक पूर्व सभ्यता थी एवं वैदिक सभ्यता का प्रारम्भ हो चला था |

४.गंगावतरण —
हिमालय की अन्य मध्य क्रम की श्रेणियां उठने से हुई हलचलों से विशाल प्रवाह व तीव्र गति वाली चंचल नदी गंगा जो अभी तक उच्च हिमालय में उत्तर की ओर ( स्वर्ग में ) बहती थी पर्वत श्रृंखलाओं की उथल-पुथल में यमुनोत्री से पूर्वी पर्वतों से दक्षिण की तरफ भारत भूमि में उतरकर बहने लगी ( सरस्वती के श्राप या भगीरथ की तपस्या या शिव की कृपा से जटाओं से मुक्ति रूप में या भागीरथ का अभियांत्रिकी कौशल ) एवं गंगा का विशाल प्रवाह समस्त टेथिस वालुका मैदान में सागर तक प्रवाहित होने लगा |

वस्तुतः यमुना व सरस्वती के पश्चिम में चले जाने पर इस मध्य क्षेत्र में जल की कमी होजाने पर एक नदी की अत्यंत आवश्यकता हुई अतः गंगा को स्वर्ग या उच्च पर्वत श्रेणियों से भारत भूमि पर उतारा गया जो भागीरथ–शिव घटनाक्रम का आधार बना | गंगा के इस क्षेत्र में प्रवाहित होने पर यह क्षेत्र उसके द्वारा लाई गयी मिट्टी,जमा की गयी सिल्ट आदि से यह क्षेत्र उपजाऊ होकर धन-धान्य संपन्न संपन्न होने लगा एवं सभ्यता सरस्वती से आप्लावित क्षेत्र से इस ओर बढ़ने लगी | आज के विश्व प्रसिद्द गंगा सिन्धु का मैदान का निर्माण हुआ|

५. सरस्वती का विलुप्तीकरण –
कालान्तर में अरावली पर्वत श्रंखला के उत्थान से थार क्षेत्र व सरस्वती व उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में भूगर्भीय हलचलों के कारण उत्तर-पश्चिम की नदियों ने पुनः मार्ग परिवर्तन किये जो इस क्षेत्र के लिए घातक सिद्ध हुए | यमुना, दृषवती नदी के साथ पुनः पूर्व की ओर मुड़कर गंगा-मैदान की ओर प्रवाहित होकर प्रयाग में गंगा से जा मिली और गंगा-यमुना का विश्व प्रसिद्द मैदान एवं विश्व का अर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र बना जहाँ भारतीय सभ्यता फली-फूली | सरस्वती की मुख्य सहायक नदी सतलज व घग्घर अपनी सहायक नदियों सहित पश्चिम में मुड़कर एक अन्य नदी सिन्धु से मिल गयी जो स्वयं सरस्वती की सहायक नदी थी |

इस प्रकार सरस्वती का प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध हुआ, वह मार्ग बदलकर बहने लगी। बदले मार्ग पर किसी भी सहायक नदियों द्वारा इसे हिमालय से जल नहीं मिला और यह वर्षा जल से बहने वाली नदी बनकर रह गई। धीरे-धीरे राजस्थान क्षेत्र में मौसम गर्म होता गया और वर्षा जल भी न मिलने के कारण सरस्वती नदी सूखकर विलुप्त हो गई।

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