अभी हाल में ही प्राचीन भारत में वैमानिकी पर कुछ वैज्ञानिकों द्वारा शोध प्रबंध एवं इसका जोरदार ज़िक्र किया जिसके उपरांत कुछ तथाकथित विज्ञानं कथाओं व विज्ञानियों द्वारा प्राचीन भारत में विज्ञान पर तीखे व्यंग किये गए …आखिर विज्ञानं है क्या…क्या सिर्फ आधुनिक युग में पाश्चात्य ज्ञान ही विज्ञान है …….विज्ञान कहाँ नहीं है …मानव का प्रत्येक क्रिया कलाप विज्ञानं के बिना कब हो सकता है …अतः विज्ञान कब नहीं थी ….प्रस्तुत है एक कथा ….
क्याविज्ञानहीईश्वरहै—लघुकथा—
आज रविवार है, रेस्ट हाउस की खिड़की से के सामने फैले हुए इस पर्वतीय प्रदेश के छोटे से कस्बे में आस पास के सभी गाँवों के लिए एकमात्र यही बाज़ार है। यूं तो प्रतिदिन ही यहाँ भीड़-भाड़ रहती है परन्तु आज शायद कोई मेला लगा हुआ है,कोई पर्व हो सकता है।यहाँ दिन भर रोगियों के मध्य व सरकारी फ़ाइल रत रहते समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। तीज, त्यौहार पर्वों की बात ही क्या। आज न जाने क्यों मन उचाट सा होरहा है।
मैं अचानक कमरे से निकलकर, पैदल ही रेस्ट हाउस से बाहर ऊपर बाज़ार की ओर चल देता हूँ, अकेला ही, बिना चपरासी, सहायक, ड्राइवर या वाहन के, मेले में।शायद भीड़ में खोजाना चाहता हूँ, अदृश्य रहकर, सब कुछ भूलकर, स्वतंत्र, निर्वाध, मुक्त गगन में उड़ते पंछी की भांति। क्या मैं भीड़ में एकांत खोज रहा हूँ?शायद हाँ। या स्वयं की व्यक्तिगतता (प्राइवेसी) या स्वयं से भी दूर… स्वयं को। एक पान की एक दूकान पर गाना आ रहा है ..’ए दिल मुझे एसी जगह ले चल …’ सर्कस में किसी ग्रामीण गीत की ध्वनि बज रही है। [Photo]
ग्रामीण महिला -पुरुषों की भीड़ दूकानों पर लगी हुई है। महिलायें श्रृंगार की दुकानों से चूड़ियाँ खरीद-पहन रहीं हैं, पुरुष -साफा, पगड़ी, छाता, जूता आदि। नव यौवना घूंघट डाले पतियों के पीछे पीचे चली जारहीं हैं, तो कहीं कपडे, चूड़े, बिंदी, झुमके की फरमाइश पूरी की जा रही है। तरह तरह के खिलोने–गड़-गड़ करती मिट्टी की गाड़ी, कागज़ का चक्र, जो हवा में तानने से चक्र या पंखे की भांति घूमने लगता है। कितने खुश हैं बच्चे …।
मैं अचानक ही सोचने लगता हूँ.…किसने बनाई होगी प्रथम बार गाड़ी, कैसे हुआ होगा पहिये का आविष्कार…! ये चक्र क्या है, तिर्यक पत्रों के मध्य वायु तेजी से गुजराती है और चक्र घूमने लगता है….वाह ! क्या ये विज्ञान का सिद्धांत नहीं है? क्या ये वैज्ञानिक आविष्कार का प्रयोग-उपयोग नहीं है…?आखिर विज्ञान कहाँ नहीं है…? मैं प्रागैतिहासिक युग में चला जाता हूँ, जब मानव ने पत्थर रगड़कर आग जलाना सीखा व यज्ञ रूप में उसे लगातार जलाए रखना, जाना।क्या ये वैज्ञानिक खोज नहीं थी। हड्डी व पत्थर के औज़ार व हथियार बनाना, उनसे शिकार व चमडा कमाने का कार्यं लेना, लकड़ी काटना-फाड़ना सीखना, बृक्ष के तने को ‘तरणि’ की भांति उपयोग में लाना, क्या ये सब वैज्ञानिक खोजें नहीं थीं? पुरा युग में जब मानव ने घोड़े, बैल, गाय आदि को पालतू बना कर दुहा, प्रयोग किया, क्या ये विज्ञान नहीं था। मध्य युग में लोहा, ताम्बा, चांदी, सोना की खोज व कीमिया गीरी क्या विज्ञान नहीं थी? कौन सा युग विज्ञान का नहीं था? चक्र का हथियार की भांति प्रयोग , बांसुरी का आविष्कार। विज्ञान आखिर कब नहीं था, कब नहीं है, कहाँ नहीं है..?
सृष्टि का, मानव का प्रत्येक व्यवहार, क्रिया, कृतित्व , विज्ञान से ही संचालित, नियमित व नियंत्रित है। तो हम आज क्यों चिल्लाते हैं..विज्ञान-विज्ञान..वैज्ञानिकता, वैज्ञानिक सोच…; आज का युग विज्ञान का युग है, आदि ? विश्व के कण कण में विज्ञान है, सब कुछ विज्ञान से ही नियमित है..।विचार अचानक ही दर्शन की ओर मुड़ जाते हैं। वैदिक विज्ञान, वेदान्त दर्शन कहता है- ‘कण कण में ईश्वर है, वही सब कुछ करता है, वही कर्ता है, सृष्टा है, नियंता है।’
तो क्या विज्ञान ही ईश्वर है? विज्ञान क्या है? भारतीय षड दर्शन -सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, वेदान्त का निचोड़ है कि –प्रत्येक कृतित्व तीन स्तरों में होता है- ज्ञान, इच्छा, क्रिया –पहले ब्रह्म रूपी ज्ञान का मन में प्रस्फुटन होता है; फिर विचार करने पर उसे उपयोग में लाने की इच्छा; पुनः ज्ञान को क्रिया रूप में परिवर्तित करके उसे दैनिक व्यवहार -उपयोग हेतु नई नई खोजें व उपकरण बनाये जाते हैं। ज्ञान को संकल्प शक्ति द्वारा क्रिया रूप में परिवर्तित करके उपयोग में लाना ही विज्ञान है, ज्ञान का उपयोगी रूप ही विज्ञान है , उसका सान्कल्पिक भाव –तप है, व तात्विक रूप–दर्शन है।ज्ञान, ब्रह्म रूप है; ब्रह्म जब इच्छा करता है तो सृष्टि होती है, अर्थात विज्ञान प्रकट होता है। विज्ञान की खोजों से पुनः नवीन ज्ञान की उत्पत्ति, फिर नवीन इच्छा, पुनः नवीन खोज–यह एक वर्तुल है, एक चक्रीय व्यवस्था है… यही संसार है… संसार चक्र …विश्व पालक विष्णु का चक्र…जो कण कण को संचालित करता है। ….’अणो अणीयान, महतो महीयान’…. जो अखिल (विभु, पदार्थ, विश्व ) को भेदते भेदते अणु तक पहुंचे, भेद डाले, …वह — विज्ञान; जो अभेद (अणु, तत्व, दर्शन, ईश्वर) का अभ्यास करते करते अखिल (विभु, परमात्म स्थित, आत्म स्थित ) हो जाए वह दर्शन है…।
अरे ! देखो डाक्टर जी …। अरे डाक्टर जी.... आप ! अचानक सुरीली आश्चर्य मिश्रित आवाजों से मेरा ध्यान टूटा….मैंने अचकचाकर आवाज़ की ओर देखा, तो एक युवती को बच्चे की उंगली थामे हुए एकटक अपनी ओर देखते हुए पाया …। “आपने हमें पहचाना नहीं डाक्टर जी, मैं कुसमा, कल ही तो इसकी दबाई लेकर आई हूँ, कुछ ठीक हुआ तो जिद करके मेले में ले आया।” …… ओह ! हाँ,…हाँ, अच्छा ..अच्छा …”मैंने यंत्रवत पूछा। “अब ठीक है?””जी हाँ,”वह हंसकर बोली।”
अरे सर , आप!” अचानक स्टेशन मास्टर वर्मा जी समीप आते हुए बोले। “अकेले.., आप ने बताया होता, मैं साथ चला आता।””
कोई बात नहीं वर्मा जी,” मैंने मुस्कुराते हुए कहा। “चलिए स्टेशन चलते हैं।”
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments