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अन्त्याक्षरी –लघु कथा …डा श्याम गुप्त ..

drshyam jagaran blog
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अन्त्याक्षरी –लघु कथा …

ईशान कोण से चली हवा,
निकला सूरज का गोला |
छिपा चाँद और गयी रात्रि,
वन में इक पांखी बोला|

“यह तो कोई कविता नहीं है !” अन्त्याक्षरी के दौर में मैंने जब यह कवितांश सुनाया तो मकान मालिक का पुत्र सतीश बोला |

क्यों ? यह द्विवेदी जी द्वारा किया गया प्रात: वर्णन है | तुम्हें याद नहीं तो हम क्या करें, मैंने कहा |… ‘ल’ पर हुआ, ‘ल’ पर बोलो, जल्दी; चालाकी से अधिक समय मत लो | मेरी तरफ के सदस्य चिल्लाए |

स्मृतियों का खाता खुलने लगता है | बचपन में छत पर समय मिलते ही बच्चों की मंडली जुड़ने पर, अन्त्याक्षरी का खेल तो एक आवश्यक पास्ट-टाइम था किशोरों का | मोहल्ले के आसपास के बच्चों की छत पर एकत्रित होकर दो टोलियाँ बनाकर, कविता, छंद, दोहा, गीत आदि के गायन की प्रतियोगिता होती थी यह | कड़ी शर्त यह होती थी की कविता, दोहा या कोई भी छंद-गीत आदि का कम से कम एक पूरा बंद होना चाहिए, आधा-अधूरा नहीं; जो मूलतः रामायण या प्रसिद्द कवियों की कृतियों से होते थे | यह वास्तव में काव्य, साहित्य द्वारा सदाचरण-संस्कृति के पुरा मौखिक ज्ञान के सहज रूप को जीवित रखने का ही एक उपक्रम था जो खेल-खेल में ही तमाम आचार-व्यवहार-सत्संग, सदाचरण सम्प्रेषण के पाठ भी हुआ करते थे | आज की तरह फ़िल्मी गानों के टुकड़ों का भोंडा प्रदर्शन नहीं |

अगला पन्ना खुलता है .…सामने की छत से अचानक मीरा की आवाज आई,” मुझे पता है, किस कवि की कविता है| सुन्दर है|”…फिर मेरी तरफ देखकर अपनी तर्जनी उंगली चक्र-सुदर्शन की मुद्रा में उठाकर सर हिलाते हुए चुपचाप बोली, ” चालाकी, इतनी सफाई से ! “… मैंने उसे आँख तरेर कर उंगली मुंह पर रखकर चुप रहने का इशारा किया |
मीरा मेरी बहन की क्लास-फेलो थी | मेरी कवितायें मेरे छोटे भाई-बहनों की स्कूल-पत्रिकाओं में उनके नाम से छपा करती थीं | एक बार उसके कहने पर तत्काल कविता बनाई थी–

” दरवाज़े के पार पहुंचकर ,
पीछे मुड़कर मुस्काती हो |
सचमुच की मीरा लगती हो,
वीणा पर जब तुम गाती हो |”

अतः उसे मेरे इस आशु-कविता हुनर का ज्ञान था | वह सामने वाले गली के पार वाले मकान में रहती थी | गली इस स्थान पर अत्यंत संकरी होजाने के कारण दोनों घरों की छतों की मुंडेरें काफी समीप थीं | घने बसे शहरों में प्रायः घरों की छतें, बालकनियाँ आदि आमने-सामने व काफी नज़दीक होती हैं और सुबह, शाम, दोपहर महिलाओं, बच्चों, किशोर-किशोरियों, सहेलियों, दोस्तों की आर-पार बातें व चर्चाएँ खूब चलतीं हैं | साथ ही में किशोरों-युवाओं की कनखियों से नयन-वार्ताएं, संकेत व कभी कभी प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान की भी सुविधा मिल जाती है |

स्मृति-पत्र आगे खुलता है……अच्छा चलो ठीक है …..सामने की टोली हथियार डाल देती है | सतीश की टोली की तेज-तर्रार सदस्या सरोज ‘ल’ पर सुनाने लगती है—
” लाल देह, लाली लसे और धर लाल लंगूर |
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि शूर |”
शूर …’र’ पर ख़त्म हुआ…’र ‘ से….|

यह तो होचुका है | मेरी तरफ की टोली के जगदीश ने तुरंत फरमान जारी किया |………जगदीश की स्मृति बहुत तीव्र थी और याददास्त के मामले में वह कालोनी में अब्वल था | सरोज के झेंप जाने पर हम सब हँसने लगे | ….. नया बोलो…नया बोलो …या हारो…. के शोर के बीच रमेश ने नया कवितांश सुनाया |

मैं सोचता हूँ आजकल भी अंग्रेज़ी का ज्ञान बढाने के लिए ..शब्द-काव्य रूपी अन्त्याक्षरी होती है, जिसका अभिप्राय: सिर्फ अंग्रेज़ी का तकनीकी ज्ञान बढ़ाना, शब्द-सामर्थ्य बढाने की एक्सरसाइज ही हो पाता है ; आचरण, शुचिता, आचार-व्यवहार , संस्कृति, ज्ञान का सहज सम्प्रेषण नहीं | वस्तुतः स्व-साहित्य, स्व-भाषा-साहित्य, स्व-संस्कृति-साहित्य- इतिहास, अपने सामाजिक व पारिवारिक उठने-बैठने के, खेलने के तौर-तरीके निश्चय ही भावी- पीढी के मन में, सोच में, एक सांस्कृतिक व वैचारिक तारतम्यता, एक निश्चित दिशाबोध प्रदत्त मानसिक दृढ़ता एवं ज्ञान, अनुभव व पुरा पीढी के प्रति श्रृद्धा, सम्मान, आदर का दृष्टिकोण विकसित करती है | आजकल पाश्चात्य दिखावे की प्रतियोगी संस्कृति के अन्धानुकरण व सुविधापूर्ण जीवन दृष्टिकोण में यह स्व-भाव व स्वीकृति ही लुप्त होती जारही है |

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