Menu
blogid : 16095 postid : 817526

drshyam jagaran blog
drshyam jagaran blog
  • 132 Posts
  • 230 Comments

ईशोपनिषद के चतुर्थ मन्त्र—-

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत |

तद्धावतोsन्यानत्येति तिष्ठन्तिस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ||

का काव्य भावानुवाद ….

१.

वह एक अकेला अचल अटल

गतिहीन न चलता फिरता है |

स्थिर है न कोई चंचलता ,

सब में ही समाया रहता है |

२.

पर मन से अधिक वेग उसका,

सबके आगे ही है चलता |

हर जगह पहुंचता सर्वप्रथम,

सबको ही पीछे छोड जाता |

3.

गतिवान है मन के वेग से भी,

अतः स्थिर सा लगता है |

हर जगह है पहले ही पहुंचा,

सब में ही समाया लगता है |

४.

गति को भी स्थिर किये हुए,

सबको बांधे स्थिर रखता |

सब कहीं सब जगह सदा व्याप्त,

जग के कण-कण में सदा प्राप्त |

५.

सब देव शक्तियां इन्द्रिय मन,

भी उसको नहीं जान पाते |

उन सबका पूर्वज वही एक,

फिर कैसे उसे जान जाते |

६.

वह ब्रह्म ज्ञान का विषय नहीं,

जो स्वयं ज्ञान का सृष्टा है |

इन्द्रियों को भी वह प्राप्त कहाँ,

वह स्वयं सभी का दृष्टा है |

7.

स्थिर है किन्तु श्रेष्ठ धावक,

सब जग को जय कर लेता है |

दौड़ते हुए जग कण कण को,

अपने वश में कर लेता है |

८.

सारे जल एवं सभी वायु,

जल वायु अग्नि पृथ्वी और मन |

हैं स्थित उसके अंतर में,

वह स्थित सभी चराचर में |

९.

सब प्राण कर्म प्रकृति-प्रवाह ,

उससे ही सदा प्रवाहित हैं|

वह स्वयं प्रवाहित है सब में,

कण कण में वही समाहित है |

१०.

सारे जग का वह धारक है,

जग उसको धारण किये हुए |

कण कण के कारण-कार्यों का,

वह एक ब्रह्म ही कारक है ||

————–क्रमश:..मन्त्र-५..


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh