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ईशोपनिषद के तृतीय मन्त्र .. ”असुर्या नाम ते लोका….. च आत्महनो जनाः ||”—का काव्य भावानुवाद —डा श्याम गुप्त

drshyam jagaran blog
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ईशोपनिषद के तृतीय मन्त्र ..

”असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |

तांस्ते प्रेत्यभिगच्छन्ति ये के च आत्महनो जनाः ||”––का काव्य भावानुवाद .

१.

आत्मज्ञान के आत्मभाव के,

सद्पथ से विपरीत मार्ग पर |

आत्मा की आवाज न सुनकर,

चले जो आत्मघात के पथ पर |

२.

आत्मतत्व के स्वयं प्रकाशित,

सहज सरल ऋजुमार्ग त्यागकर |

स्वविवेक, सदइच्छा, सदगुण,

सदाचरण की उपेक्षा कर |

3.

भक्तिहीन वह लोभी भोगी,

अकर्मण्य वह आत्महीन जन |

अन्धकार अज्ञान तमस रत,

अंधकूप में गिरता जाता |

४.

विविध अकर्म, अधर्म पापमय

कृत्यों में हो लिप्त वह मनुज |

जाने कितने असुरभाव युत,

पापपंक में घिरता जाता |

५.

इन्द्रियवश कायासुख लोभी,

लिप्त अदा तेरे मेरे हित |

विविध प्रपंचों में रत, होता-

वंचित सुख आनंद शान्ति से |

६.

विविध मोह माया में फंसकर,

भवबंधन में उलझा प्राणी |

कष्ट, दुखों के महाचक्र में,

भंवरजाल में घिरता जाता |

7.

इसीलिये कहते ज्ञानी जन,

शास्त्र पुराण उपनिषद् सब ही |

विविध आसुरीवृत्ति धार वह,

प्राणी प्रेतयोनि  पाता  है |

८.

मृत्यु प्राप्ति पर आत्महीन वह,

आत्महननकारी स्वघाती |

अन्धकारतम युक्त गहनतम,

योनि व लोकों में जाता है ||

—क्रमश…चतुर्थ मन्त्र …

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