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ईशोपनिषद के द्वितीय मन्त्र ….के द्वितीय भाग…’एवंत्वयि नान्यथेतो Sस्ति न कर्म लिप्यते नरे’ का काव्य-भावानुवाद ..डा श्याम गुप्त….

drshyam jagaran blog
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———–ईशोपनिषद के द्वितीयमन्त्र ….

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समा |

एवंत्वयि नान्यथेतो S स्ति न कर्म लिप्यते नरे ||’

…….के द्वितीय भाग...एवंत्वयि नान्यथेतोSस्ति न कर्म लिप्यते नरे का काव्य-भावानुवाद ….

—-

१.

सदकर्मों की इच्छा ले यदि ,

मानव, सेवा-धर्म निभाये |

जीवन अल्प हो चाहे जितना ,

शत शत शरद का जीवन पाए |

२.

इसी भावयुत कर्म किये जा ,

यही एक बस उचित पंथ है |

अन्य न जीवन राह है कोई ,

यह जीवन का सत्य मन्त्र है |

3.

कन्टकीर्ण है राह कर्म की,

पग पग पर बाधाएं मग में |

जाने कितने तृष्णा-लालच ,

के पल आते हैं इस पथ में |

४.

कर्म लिपट ही पाते हैं कब,

उससे जो त्यागी अलिप्त है|

लिप्सा तृष्णा उसे बांधती,

अपकर्मों में नर जो लिप्त है |

५.

कर्म भाव के सत्य मार्ग पर,

चलता दृड़ता से जो कोई |

लिप्त न होता उसे न होती ,

कर्मों में आसक्ति न कोई |

६.

लिप्सा लालच स्वार्थ भावना,

नहीं लिपट पाती तन मन से |

ईश्वर प्राप्ति, मोक्ष क्या होगी,

सुन्दर उस पावन जीवन से ||

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