वैदिक युग में चिकित्सक-रोगी संबंध– डा श्याम गुप्त …
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वैदिकयुगमेंचिकित्सक–रोगीसंबंध—
वैज्ञानिक, सामाजिक, साहित्यिक, मनोवैज्ञानिक, प्रशासनिक व चिकित्सा आदि समाज के लगभग सभी मन्चों व सरोकारों से विचार मन्थित यह विषय उतना ही प्राचीन है जितनी मानव सभ्यता। आज के आपाधापी के युग में मानव -मूल्यों की महान क्षति हुई है; भौतिकता की अन्धी दौड़ से चिकित्सा -जगत भी अछूता नहीं रहा है। अतः यह विषय समाज व चिकित्सा जगत के लिये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आज जहां चिकित्सक वर्ग में व्यबसायी करण व समाज़ के अति-आर्थिकीकरण के कारण तमाम भ्रष्टाचरण व कदाचरणों का दौर प्रारम्भ हुआ है वहीं समाज़ में भी मानव-मूल्यों के ह्रास के कारण, सर्वदा सम्मानित वर्गों के प्रति ईर्ष्या, असम्मान, लापरवाही व पैसे के बल पर खरीद लेने की प्रव्रत्ति बढी है जो समाज, मनुष्य, रोगी व चिकित्सक के मधुर सम्बंधों में विष की भांति पैठ कर गई है। विभिन्न क्षेत्रों में चिकित्सकों की लापरवाही, धन व पद लिप्सा , चिकित्सा का अधिक व्यवसायीकरण की घटनायें यत्र-तत्र समाचार बनतीं रहती हैं। वहीं चिकित्सकों के प्रति असम्मानजनक भाव, झूठे कदाचरण आरोप, मुकदमे आदि के समाचार भी कम नहीं हैं। यहां तक कि न्यायालयों को भी लापरवाही की व्याख्या करनी पडी है । अतःजहां चिकित्सक-रोगी सम्बन्धों की व्याख्या समाज़ व चिकित्सक जगत के पारस्परिक तादाम्य, प्रत्येक युग की आवश्यकता है, साथ ही निरोगी जीवन व स्वस्थ्य समाज की भी। आज आवश्यकता इस बात की है कि चिकित्सक-जगत, समाज व रोगी सम्बन्धों की पुनर्व्याख्या की जाय , इसमें तादाम्य बैठाकर इस पावन परम्परा को पुनर्जीवन दिया जाय ताकि समाज को गति के साथ-साथ दृढता व मधुरता मिले।
संस्कृति व समाज़ में काल के प्रभावानुसार उत्पन्न जडता, गतिहीनता व दिशाहीनता को मिटाने के लिये समय-समय पर इतिहास के व काल-प्रमाणित महान विचारों, संरक्षित कलापों को वर्तमान से तादाम्य की आवश्यकता होतीहै। विश्व के प्राचीनतम व सार्व-कालीन श्रेष्ठ साहित्य, वैदिक-साहित्य में रोगी -चिकित्सक सम्बन्धों का विशद वर्णन है जिसका पुनःरीक्षण करके हम समाज़ को नई गति प्र्दान कर सकते हैं। चिकित्सक की परिभाषा—ऋग्वेद (१०/५७/६) मे कथन है—
“यस्तैषधीःसममतराजानाःसमिताविव।
विप्रसउच्यतेभि्षगुक्षोहामीवचातनः॥“
–जिसके समीप व चारों ओर औषधिया ऐसे रहतीं हैं जैसे राजा के समीप जनता, विद्वान लोग उसे भैषजज्ञ या चिकित्सक कहते हैं। वही रोगी व रोग का उचित निदान कर सकता है। अर्थात एक चिकित्सक को चिकित्सा की प्रत्येक फ़ेकल्टी (विषय व क्षेत्र) के क्रिया-कलापों, व्यवहार व मानवीय सरोकारों में निष्णात होना चाहिये।
रोगी व समाज का चिकित्सकों के प्रति कर्तव्य–देव वैद्य अश्विनी कुमारों को ऋग्वेद में “धीजवनानासत्या“ कहागया है, अर्थात जिसे अपनी स्वयम की बुद्धि व सत्य की भांति देखना चाहिये। अतःरोगी व समाज़ को चिकित्सक के परामर्श व कथन को अपनी स्वयम की बुद्धि व अन्तिम सत्य की तरह विश्वसनीय स्वीकार करना चाहिये। ऋग्वेद के श्लोक १०/९७/४ के अनुसार—
“औषधीरितिमातरस्तद्वोदेवीरूपब्रुवे।
सनेयाश्वंगांवासआत्मानामतवपूरुष॥“
–औषधियां माता की भंति अप्रतिम शक्ति से ओत-प्रोत होतीं हैं,हे चिकित्सक! हम आपको,गाय,घोडे,वस्त्र,ग्रह एवम स्वयम अपने आप को भी प्रदान करते हैं।अर्थात चिकित्सकीय सेवा का रिण किसी भी मूल्य से नहीं चुकाया जा सकता। समाज व व्यक्ति को उसका सदैव आभारी रहना चाहिये।
चिकित्सकों के कर्तव्य व दायित्व—
१. रोगीचिकित्सावआपातचिकित्सा– ऋचा ८/२२/६५१२-ऋग्वेद के अनुसार—
“साभिर्नोमक्षूतूयमश्विनागतंभिषज्यतंयदातुरं।“
— अर्थात हे अश्विनी कुमारो! (चिकित्सको) आप समाज़ की सुरक्षा, देख-रेख, पूर्ति, वितरण में जितने निष्णात हैं उसी कुशलता व तीव्र गति से रोगी व पीडित व्यक्ति को आपातस्थिति में सहायता करें। अर्थात चिकित्सा व अन्य विभागीय कार्यों के साथ-साथ आपात स्थिति रोगी की सहायता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
२. जनकल्याण– ऋचा ८/२२/६५०६ के अनुसार—
“युवोरथस्यपरिचक्रमीयतइमान्यद्वामिष्ण्यति।
अस्माअच्छासुभतिर्वाशुभस्पतीआधेनुरिवधावति॥“ –हे अश्वनी कुमारो ! आपके दिव्य रथ ( स्वास्थ्य-सेवा चक्र) का एक पहिया आपके पास है एक संसार में। आपकी बुद्धि गाय की तरह है।
——–चिकित्सक की बुद्धि व मन्तव्य गाय की भांति जन कल्याण्कारी होना चाहिये। उसे समाज व जन-जन की समस्याओं से भली-भांति अवगत रहना चाहिये एवम सदैव सेवा व समाधान हेतु तत्पर।
३. रोगीकेआवासपरपरामर्श—ऋग्वेद-८/५/६१००-कहता है-
“महिष्ठांवाजसात्मेष्यंताशुभस्पतीगन्तारादाषुषोग्रहम॥“—गणमान्य, शुभ, सुविग्य, योग्य जनों के एवम आवश्यकतानुसार आप ( अश्वनी कुमार–चिकित्सक) स्वयं ही उनके यहां पहुंचकर उनका कल्याण करते हैं।
४.-स्वयंसहायता ( सेल्फ़विजिट)-–ऋचा ८/१५/६११७-में कहा है—
“कदांवांतोग्रयोविधित्समुद्रोजहितोनरा।यद्वारथोविभिथ्तात॥“—हे अश्विनी कुमारो! आपने समुद्र (रोग -शोक के ) में डूबते हुए भुज्यु ( एक राजा) को स्वयं ही जाकर बचाया था, उसने आपको सहायता के लिये भी नहीं पुकारा था। ——अर्थात चिकित्सक को संकट ग्रस्त, रोग ग्रस्त स्थित ज्ञात होने पर स्वयं ही , विना बुलाये भी पीडित की सहायता करनी चाहिये।
यदि आज भी चिकित्सा जगत, रोगी , तीमारदार, समाज, शासन सभी इन तथ्यों को आत्मसात करें, व्यवहार में लायें , तो आज के दुष्कर युग में भी आपसी मधुरता व युक्त-युक्त सम्बन्धों को जिया जासकता है, यह कोई कठिन कार्य नहीं, आवश्यकता है सभी को आत्म-मंथन करके तादाम्य स्थापित करने की।
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