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संस्कृत भाषा और श्री मार्कंडेय काटजू का कथन
एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में श्री मार्कंडेय काटजू का कथन है कि संस्कृति विज्ञान की भाषा थी ईश्वर को नहीं मानती थी | उसमें हिन्दुओं व तंत्रमंत्र का वर्णन सिर्फ ५% ही हैं | संस्कृत का धर्म से कुछ लेना देना नहीं वह विज्ञान की भाषा थी एवं धर्म विरोधी भाषा थी, स्वतंत्र सोच वालों की |
प्रश्न यह है कि क्या काटजू संस्कृति भाषा के जानकर हैं, क्या वे भाषा विज्ञान के ज्ञाता हैं अथवा क्या वे धर्म व विज्ञान के बारे में कोइ स्पष्ट मत रखते हैं|
क्या भाषाए धर्म विरोधी या स्वतंत्र सोच की हुआ करती हैं| अथवा क्या स्वतंत्र सोच युत होने के लिए धर्म का विरोधी होना आवश्यक है | क्या धर्म स्वतंत्र सोच का विरोधी है | क्या धर्म विज्ञान का विरोधी है|
संस्कृत को ईश्वर की भाषा कौन कहता है ? उसे देव-भाषा कहा जाता है | वैदिक संस्कृति से प्रथम विश्व में जो देव-संस्कृति थी उसकी भाषा जो तत्पश्चात वैदिक संस्कृति और बाद में लौकिक संस्कृत हुई | ईश्वर, सृष्टि, पुरुष, प्रकृति, के बारे में समस्त वेदों में स्पष्ट वर्णन हैं| निश्चय ही समस्त वैज्ञानिक तथ्यों का समुचित वर्णन वेदों में है परन्तु साथ ही ईश्वर का भी, यही तो वैदिक समाज की विशेषता थी-विज्ञान –ईश्वर व धर्म – धर्माचरण के समन्वय द्वारा – मानव आचरण …जो आज हम भूल गए हैं |
भाषाएँ क्या धर्म की या विज्ञान की हुआ करती हैं | भाषाएँ क्या है …वे तो मानव के स्वयं के, समाज के विचारों को प्रतिपादित करने का माध्यम होती हैं| जिसप्रकार की समाज की सोच होती है वही भाषा में परिलक्षित होती है | भाषाओं में लिखा गया साहित्य तत्कालीन समाज को प्रतिविम्बित करता है, वह समाज व साहित्य की विशेषता होती है भाषा की विषय चयनता नहीं | भाषाओं को धर्म या विज्ञान आदि की भाषा कहना, किसी विशेष खांचे में रखना अज्ञानता का द्योतक है |
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