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ईशोपनिषद – उसके आधुनिक सन्दर्भ तथा मानवीय आचरण की दिशा…खंड एक …डा श्याम गुप्त…

drshyam jagaran blog
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ईशोपनिषद – उसके आधुनिक सन्दर्भतथा मानवीय आचरण की दिशा…भाग एक …

विश्व के प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ ज्ञान के भण्डार वेद , जिनके बारे में कथन है किजो कुछ भी कहीं है वह वेदों में है और जो वेदों में नहीं है वह कहीं नहीं, के ज्ञान …परा व अपरा विद्या के आधारउपनिषद् हैं जो भारतीय मनीषा, ज्ञान, विद्या , संस्कृति  व आचरण-व्यवहार के आधार तत्व हैं | उपनिषद् भवन की आधार शिला  ‘ईशोपनिषद ‘ है जिसमें समस्त वेदों व उपनिषद् शिक्षा का सार है |  ईशोपनिषद यजुर्वेद का चालीसवां  अध्याय  है जो परा व अपरा ब्रह्म-विद्या का मूल है अन्य सभी  उपनिषद् उसी का विस्तार हैं | वेदों के मन्त्रों का भाव मूलतः दो रूपों  में प्राप्त होता है …

१. उपदेश रूप में –जहाँ मानव अपने कर्म में स्वतंत्र है वह उपदेश उस रूप में ग्रहण करे न करे..

.२. नियम रूप में — जो प्राकृतिक नियम रूप हैं एवं अनुल्लंघनीय हैं |

ईशोपनिषदमें ईश्वर, जीव, संसार, कर्म, कर्त्तव्य, धर्म , सत्य, व्यवहार एवं उनकातादाम्य 18 मन्त्रों में देदिया गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं , समीचीनहैं एवं अनुकरणीय व पालनीयहैं | इसकी सैकड़ों टीकाएँ –— विधर्मी दाराशिकोह, जिसे इसके अध्ययन के बाद ही शान्ति मिली  द्वारा फारसी में…. जर्मन विद्वान्  शोपेन्हावर को अपनी  प्रसिद्ध  फिलासफी त्याग कर इसी से संतुष्टि प्राप्त हुई|  शंकराचार्य की अद्वैतपरक...रामानुजाचार्य की विशिष्टाद्वेतपरक एवं माधवाचार्य की द्वैतपरकटीकाएँ इस उपनिषद् की  महत्ता का वर्णन करती हैं |

ईशोपनिषद के 18 मन्त्रों में चार भागों में सबकुछ कह दिया गया है |  ये हैं–प्रथम भाग...मन्त्र १ से ३ …. मानव जीवन के मूल कर्त्तव्य ..द्वितीय भाग....मन्त्र ४ से ८….ब्रह्म विद्या मूलक सिद्धांत व ईश्वर के गुण व ईश्वर क्यों …तृतीय भाग....मन्त्र ९ से १४ ….ज्ञान-अज्ञान, यम-नियम , मानव के कर्त्तव्य , विद्या-अविद्या, संसार             ब्रह्म-विद्या प्राप्ति, प्रकृति, कार्य-कारण , मृत्यु -अमरत्व ….आत्मा-शरीर,..चतुर्थ भाग ….. मन्त्र १५  से 18…..सत्य, धर्म, कर्म, ईश्वर -जीव का मिलन , आत्मा-शरीर का अंतिम परिणाम |

भाग एक

ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगात्याम् जगत|

तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधःकस्यस्विद्धनम || १….

———इस जगत में अर्थात पृथ्वी पर, संसार में जो कुछ भी चल-अचल , स्थावर , जंगम , प्राणी आदि  वस्तु है वह ईश्वर की माया से आच्छादित है अर्थात उसके अनुशासन से नियमित है |  उन सभी पदार्थों को त्याग से अर्थात सिर्फ उपयोगार्थ दिए हुए समझकर उपयोग रूप में ही भोगना चाहिए , क्योंकि यह धन किसी का भी नहीं हुआ है अतः किसी प्रकार के भी  धन व अन्य के स्वत्व-स्वामित्व  का लालच व ग्रहण नहीं करना चाहिए |

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समाः |

एवंत्वयि नान्यथेतो sति न कर्म लिप्यते नरः ||..२..

——-यहाँ मानव कर्मों को करते हुए १०० वर्ष जीने की इच्छा करे, अर्थात कर्म के बिना, श्रम के बिना जीने की इच्छा व्यर्थ है |  कर्म करने से अन्य  जीने का कोई भी  उचित मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रकार उद्देश्यपूर्ण, ईश्वर का ही सबकुछ मानकर, इन्द्रियों को वश में रखकर आत्मा की आवाज़ के अनुसार   जीवन जीने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता…. अर्थात अनुचित कर्मों में,  ममत्व में लिप्त नहीं होता ,अपना-तेरा, सांसारिक द्वंद्व  दुष्कर्म, विकर्म आदि उससे लिप्त नहीं  होते |

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |

तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ||-३ …

——-जो आत्मा के घातक अर्थात ईश्वर आधारित व आत्मा के विरुद्ध , केवल शरीर व इन्द्रियों आदि की शक्ति व इच्छानुसार  सद्विवेकआदि की उपेक्षा करके कर्म ( या अपकर्म आदि ) करते हैं वे अन्धकार मय लोकों में पड़ते हैं अर्थात विभिन्न कष्टों, मानसिक कष्टों, सांसारिक द्वेष-द्वंद्व रूपी यातनाओं में फंसते हैं | निश्चय ही मानव का आत्मस्वयं शक्ति का केंद्रहै उस शक्ति के अनुसार चलना, मन वाणी शरीर से कर्म करना  ही उचित है यही आस्तिकता है, ईश्वर-भक्ति है ,अन्य  कोई मार्ग नहीं है|  इस ईश्वर .. श्रेष्ठ -इच्छा एवं  आत्म-शक्ति से ही समस्त विश्व संचालित है, आच्छादित है , अनुशासित है ..

तू ही तू है , सब कहीं है |

सब वस्तु ईश्वर की न मानना अर्थात धन एवं अपने स्वत्व को ईश्वर से पृथक मानना.. मैं ,ममत्व..ममता, मैं -तू का द्वैतही समस्त दुखों, द्वंद्वों, घृणा आदि का मूलहै|

सब कुछ ईश्वर के ऊपरछोडो यारो ,अच्छे कर्मों का फल है अच्छाही होता |—कर्म-संसार का अटूट नियम है  ..जगत में कोई भी वस्तु क्रिया रहित नहीं होती , अतः कर्मनिष्ठ होना ही मानव की नियति है | परन्तु  जो लोग अपनी आत्मा( सेल्फ कोंशियस ) के विपरीत, मूल नियम के विरुद्ध, ईश्वरीय नियम के विरुद्ध अर्थातप्रतिकूल कर्म करते हैं वे विविध कष्टों को प्राप्त होते हैं| “” मिलता तुझको वही सदा जो तू बोता है |”

यही आत्मप्रेरणासे चरित्र निर्माण का मार्ग है |

भाग दो

प्रथम भाग के तीन मन्त्रों में मानव के मूल कर्तव्यों को बताया गया है  कि …सबकुछ ईश्वर से नियमित है एवं वह सर्वव्यापक है ,अतः जगत के पदार्थों को अपना ही न मानकर , ममता को न जोड़कर सिर्फ प्रयोगाधिकार से भोगना चाहिए | कर्म  करना आवश्यक है परन्तु उसे अपना कर्त्तव्य व धर्म मानकर करना चाहिए , आत्मा के प्रतिकूल कर्म नहीं करना चाहिए एवं किसी की वस्तु एवं उसके स्वत्व का हनन नहीं करें | इस द्वितीय भाग में मन्त्र 4 से 8 तकमें ब्रह्म विद्या के मूल तत्वों एवं ब्रह्म के गुणोंका वर्णन है ….

अनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वंमर्षत|

तद्धावतोsन्यान्यत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति||..

——वह  ब्रह्म अचल,एक ही एवं मन से भी अधिक वेगवान है तथा सर्वप्रथम है, प्रत्येक स्थान पर पहले से ही व्याप्त है | उसे  इन्द्रियों से प्राप्त (देखा, सुना,अनुभव आदि ) नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों को प्राप्त नहीं  है | वह अचल होते हुए भी अन्य सभी दौड़ने वालों से तीब्र गति से प्रत्येक स्थान पर पहुँच जाता है क्योंकि वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है | वही समस्त वायु, जल आदि  विश्व को धारण करता है | तदेज़ति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके |तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ||…५ ..

——वह ब्रह्म गतिशील भी है अर्थात सब को गतिदेता परन्तु वह स्थिर भी है क्योंकि वह स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी हैक्योंकि समस्त संसार में व्याप्त ..विभु है  और सबके समीप भी क्योंकि सबके अंतर में स्थित प्रभु भी है  | वह सबके अन्दर भी स्थित है एवं सबको आवृत्त भी किये हुए है , अर्थात सबकुछ उसके अन्दर स्थित है |

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति |

सर्वभूतेषुचात्मानं ततो न विजुगुप्सते ||…६…

———जो कोई समस्त चल-अचल जगत को परमेश्वर में ( एवं आत्म-तत्व  में )  ही स्थित देखता समझता है तथा सम्पूर्ण जगत में  परमेश्वर को  ( एवं आत्म तत्व  को )  ही स्थित देखता समझता है वह भ्रमित नहीं होता , घृणा नहीं करता अतःआत्मानुरूप कर्मों के न करने से निंदा का पात्र नहीं बनता |

यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवा भू द्विजानतः |

तत्रको मोहःकः शोक एकत्वमनुपश्यत: ||…७….

——-जब  व्यक्ति यह उपरोक्त मर्म जाना लेता है कि आत्मतत्व ही समस्त  भूतों….चल-अचल संसार में व्याप्त है वह सबको आत्म में स्थित मानकर सबको स्वयं में ही मानकर अभूत .अर्थात एकत्व -भाव होजाता है | ऐसे सबको समत  संसार को एक सामान देखने समझाने वाले को न कोई मोह रहता है न शोक …वह ममत्व से परे  परमात्म-रूप ही  होजाता है | उसका ध्येय ईश्वरार्पण |

पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-मस्नाविरंशुद्धमपापविद्धम |

कविर्मनीषी परिभू स्वयन्भूर्याथातथ्यतोsर्थान- व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||….८….

——–और वह ईश्वर परि अगात ,,,सर्वत्र व्यापक, शुक्रं….जगत का उत्पादक, अकायम…शरीर रहित,  अव्रणम …विकार रहित ,अस्नाविरम ..बंधनों से मुक्त, पवित्र,पाप बंधन से रहित कविः…सूक्ष्मदर्शी , ज्ञानी, मनीषी, सर्वोपरि, सर्वव्याप्त ( परिभू). स्वयंभू ….स्वयंसिद्ध , अनादि है | उसने  प्रजा अर्थात जीव के लिए समाभ्य  अनादिकाल से  यातातथ्यतः  अर्थात यथायोग्य ..ठीक ठीक कर्मफल का विधान  कर रखा है, सदा ही सबके लिए उचित साधनों  व अनुशासन की व्यवस्था करता है |

अर्थात…… आखिर कोई ब्रह्म के, उसके गुणों के, ब्रह्म विद्या के बारे में क्यों जाने ? ईश्वर को क्यों माने ,इसकावास्तविक जीवन में क्या कोई महत्व है ? वस्तुतः हमारा, व्यक्ति का, मानव मात्र का उद्देश्य ब्रह्म को जानना, वर्णन करना ज्ञान बघारना आदि ही नहीं अपितु वास्तव में तो ब्रह्म के गुण जानकर, समस्त संसार को ईश्वरमय एवं ईश्वर को संसार मय….आत्ममय ..समस्त विश्व को एकत्व जानकर मानकर , ईश्वर व आत्मतत्व का एकत्व जानकर विश्वबंधुत्व के पथ पर बढ़ना, समत्व से ,समता भाव से  कर्म करना एवं वर्णित ईश्वरीय गुणों को आत्म  में, स्वयं में समाविष्ट करके शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति द्वारा …व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्र, विश्वव मानवता की उन्नति ही इस विद्या का ध्येय है |

—क्रमश..खंड दो… अगली पोस्ट में…

— डा श्याम गुप्त, के-३४८, आशियाना लखनऊ -२२६०१२, ९४१५१५६४६४.

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