दहन सी दहकै द्वार देहरी दगर्-दगर, कली कुञ्ज-कुञ्ज क्यारी-क्यारी कुम्हिलाई है | पावक प्रतीति पवन परसि पुष्प पात-पात, जारै तरु-गात, डाली-डाली मुरझाई है | जेठ की दुपहरी यों तपाये अंग-प्रत्यंग , मलय बयार मन मार अलसाई है | तपें नगर गाँव, छाँव ढूँढि रही शीतल छाँव , धरती गगन श्याम, आगि सी लगाई है ||
२.
सुनसान गली वन बाग़ बाज़ार पड़े, जीभ को निकाल श्वान, हांफते से जा रहे | कोई पड़े एसी-कक्ष, कोई लेटे तरु छांह , कोई झलें पंखा, कोई कूलर चला रहे | जब कहीं आवश्यक कार्यं से है जाना पड़े, पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे | ऐनक लगाए ‘श्याम, छतरी लिए हैं हाथ, नर-नारी सब ही पसीने से नहा रहे ||
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