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जेठ की दोपहरी.. ..डा श्याम गुप्त …

drshyam jagaran blog
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जेठ की दोपहरी.. ..डा श्याम गुप्त …

( घनाक्षरी छंद )

१.

दहन सी दहकै द्वार देहरी दगर्-दगर,
कली कुञ्ज-कुञ्ज क्यारी-क्यारी कुम्हिलाई है |
पावक प्रतीति पवन परसि पुष्प पात-पात,
जारै तरु-गात,  डाली-डाली  मुरझाई  है |
जेठ की दुपहरी यों तपाये  अंग-प्रत्यंग ,
मलय बयार मन मार अलसाई  है |
तपें  नगर गाँव, छाँव ढूँढि रही शीतल छाँव ,
धरती गगन  श्याम, आगि सी लगाई है ||

२.

सुनसान  गली वन  बाग़ बाज़ार पड़े,
जीभ को निकाल श्वान, हांफते से जा रहे |
कोई  पड़े एसी-कक्ष, कोई लेटे तरु छांह ,
कोई झलें पंखा,  कोई कूलर चला रहे |
जब कहीं आवश्यक कार्यं से है जाना पड़े,
पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे |
ऐनक लगाए ‘श्याम, छतरी लिए हैं हाथ,
नर-नारी सब ही पसीने से नहा रहे ||

३.
टप टप  टप टप,  अंग बहै स्वेद धार |

ज्यों उतरि गिरि-श्रृंग जल-धार आई है |

बहै घाटी मध्य, करि विविध प्रदेश पार,

धार सरिता की जाय सिन्धु में समाई है |

श्याम खुले केश, ढीले-ढाले वस्त्र तिय देह ,

उमंगे उरोज,  उर  उमंग  उमंगाई  है |

ताप से तपे हैं तन, ताप तपे तन-मन,

निरखि नैन नेह,  नेह निर्झर समाई  है ||

4.

चुप-चुप चकित न चहक रहे खगवृन्द,

सारिका ने शुक से भी चौंच न लड़ाई है |

बाज औ कपोत बैठे एक ही तरु-डाल,

मूषक बिडाल भूलि बैठे शत्रुताई  है|

नाग-मोर एक ठांव, सिंह-मृग एक छाँव ,

धरती मनहु तपोभूमि  सी सुहाई है |

श्याम, गज-ग्राह मिलि बैठे सरिता के कूल,

जेठ की दुपहरी, साधु-भाव जग लाई है ||

५.

हर  गली-गाँव,  हर नगर  मग ठांव ,

जन-जन, जल- शीतल पेय हैं पिला रहे |

कहीं मिष्ठान्न बटें,  कहीं है ठंडाई घुटे,

मीठे जल की भी कोऊ प्याऊ लगवा रहे |

राह रोकि हाथ जोरि, शीतल-जल भेंट करि,

हर  तप्त राही को ही ठंडक दिला रहे|

भुवन भाष्कर, धरि मार्तंड रूप, श्याम,

उंच नीच भाव मनहुं मन के मिटा रहे ||

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