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ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र के द्वितीय भाग ..”तेन त्यक्तेन भुंजीथा…” का काव्य-भावानुवाद…… डा श्याम गुप्त

drshyam jagaran blog
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ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र के द्वितीय भाग ..तेन त्यक्तेन भुंजीथा…”का काव्य-भावानुवाद……

१.
सब कुछ ईश्वर की ही माया,

तेरा मेरा कुछ भी नहीं है |

जग को अपना समझ न रे नर !

तू तेरा सब कुछ वह ही है |

२.

पर है कर्म-भाव आवश्यक,

कर्म बिना कब रह पाया नर |

यह जग बना भोग हित तेरे,

जीव अंश तू, तू ही ईश्वर |

३.

उसे त्याग के भाव से भोगें,

कर्मों में आसक्ति न रख कर|

बिना स्वार्थ, बिन फल की इच्छा,

जो जैसा मिल जाए पाकर |

४.

कर्मयोग है यही, बनाता –

जीवनमार्ग सहज, शुचि, रुचिकर |

जग में रहकर भी नहिं जग में,

होता लिप्त कर्मयोगी नर |

५.

पंक मध्य ज्यों रहे जलज दल,

पंक प्रभाव न होता उस पर |

सब कुछ भोग-कर्म भी करता,

पर योगी कहलाये वह नर ||

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