drshyam jagaran blog
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ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र के द्वितीय भाग ..”तेन त्यक्तेन भुंजीथा…”का काव्य-भावानुवाद……
१.
सब कुछ ईश्वर की ही माया,
तेरा मेरा कुछ भी नहीं है |
जग को अपना समझ न रे नर !
तू तेरा सब कुछ वह ही है |
२.
पर है कर्म-भाव आवश्यक,
कर्म बिना कब रह पाया नर |
यह जग बना भोग हित तेरे,
जीव अंश तू, तू ही ईश्वर |
३.
उसे त्याग के भाव से भोगें,
कर्मों में आसक्ति न रख कर|
बिना स्वार्थ, बिन फल की इच्छा,
जो जैसा मिल जाए पाकर |
४.
कर्मयोग है यही, बनाता –
जीवनमार्ग सहज, शुचि, रुचिकर |
जग में रहकर भी नहिं जग में,
होता लिप्त कर्मयोगी नर |
५.
पंक मध्य ज्यों रहे जलज दल,
पंक प्रभाव न होता उस पर |
सब कुछ भोग-कर्म भी करता,
पर योगी कहलाये वह नर ||
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