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कविता..प्रविष्टि..जब जब इन गलियों से गुजरूं..

drshyam jagaran blog
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जब जब इन गलियों से गुजरूं

तब तुम बहुत याद आती हो |

दरवाजे के पार पहुंचकर ,

मुड़कर अक्सर मुस्काती हो ||

जोगन बनकर थाल सजाकर,

जब जब तुम मंदिर जाती हो |

सचमुच की मीरा लगती हो,

वीणा पर जब तुम गाती हो ||

मेरे ख्यालों में आकर के,

अब भी मुझको भरमाती हो |

घर के अन्दर जाकर के तुम,

पीछे मुड़कर मुस्काती हो ||

तेरे गीतों की सरगम से ,

हे प्रिय मैं कवि बन पाया हूँ |

पर तुम तो बस इतना समझो,

तेरे गीतों का साया हूँ ||

तेरे ही संगीत हे प्रियवर,

मेरे गीत बना जाते हैं|

तेरी यादें तेरे सपने ,

नए नए स्वर  दे जाते हैं||

मेरे मन मंदिर में अक्सर ,

बनी मोहिनी तुम गाती हो |

सचमुच की मीरा लगती हो,

सचमुच मीरा बन जाती हो ||

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