drshyam jagaran blog
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जब जब इन गलियों से गुजरूं
तब तुम बहुत याद आती हो |
दरवाजे के पार पहुंचकर ,
मुड़कर अक्सर मुस्काती हो ||
जोगन बनकर थाल सजाकर,
जब जब तुम मंदिर जाती हो |
सचमुच की मीरा लगती हो,
वीणा पर जब तुम गाती हो ||
मेरे ख्यालों में आकर के,
अब भी मुझको भरमाती हो |
घर के अन्दर जाकर के तुम,
पीछे मुड़कर मुस्काती हो ||
तेरे गीतों की सरगम से ,
हे प्रिय मैं कवि बन पाया हूँ |
पर तुम तो बस इतना समझो,
तेरे गीतों का साया हूँ ||
तेरे ही संगीत हे प्रियवर,
मेरे गीत बना जाते हैं|
तेरी यादें तेरे सपने ,
नए नए स्वर दे जाते हैं||
मेरे मन मंदिर में अक्सर ,
बनी मोहिनी तुम गाती हो |
सचमुच की मीरा लगती हो,
सचमुच मीरा बन जाती हो ||
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