drshyam jagaran blog
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कामिनि! तेरा वह मृदुल हास |
श्यामांगिनि ! तेरा मुखर लास |
जाने कितने उपमा रूपक ,
सज जाते बनकर सृष्टि–साज |
हृद तंत्री में अगणित असंख्य ,
बस जाते मधुमय मदिर राग |
मन के उपवन में छाजाता,
सुरभित अनुपम मधुरिम पराग |
वह मुकुलित कुसुमित सा सुहास ,
कामिनी तेरा वह मृदुल हास ||
वह शुभ्र चपल स्मिति तरंग ,
नयनों में घोले विविध रंग |
तन मन को रंग जाते बनकर,
अगणित बसंत रस रंग फाग |
आँखों में सजते इन्द्र–धनुष ,
बनकर चाहत के प्रिय–प्रवास |
रूपसि ! वह मुखरित विमल लास |
कामिनि ! तेरा वह मृदुल हास ||
मद्दम –मद्दम वह मधुरिम स्वर ,
वह मौन मुखरता की प्रतिध्वनि |
आता ऋतुराज स्वयं लेकर ,
कलियों का आमंत्रण सहास |
अणु अणु में छाजाती असीम,
नव तन्मयता उल्लास–लास |
श्यामांगिनि ! तेरा मृदुल हास |
कामिनि ! तेरा वह मुखर लास
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