drshyam jagaran blog
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कवि! गुनुगुनाओ आज –
एसा गीत कोई ।
बहने लगे रवि रश्मि से भी,
प्रीति की शीतल हवाएं ।
प्रेम के संगीत सुर को–
लगें कंटक गुनगुनाने |
द्वेष द्वंद्वों के ह्रदय को –
रागिनी के स्वर सुहाएँ.
वैर और विद्वेष को ,
भाने लगे प्रिय मीत कोई ||
अहं में जो स्वयं को
जकडे हुए |
काष्ठवत और लोष्ठ्वत
अकड़े खड़े |
पिघलकर –
नवनीत बन जाएँ सभी |
देश के दुश्मन , औ आतंकी यथा–
देश द्रोही और द्रोही–
राष्ट्र और समाज के ;
जोश में भर लगें वे भी गुनगुनाने,
राष्ट्र भक्ति के वे –
शुचि सुन्दर तराने |
आज अंतस में बसालें ,
सुहृद सी ऋजु नीति कोई ||
वे अकर्मी औ कुकर्मी जन सभी
लिप्त हैं जो
अनय और अनीति में |
अनाचारों का तमस–
चहुँ ओर फैला ;
छागये घन क्षितिज पर अभिचार के |
धुंध फ़ैली , स्वार्थ, कुंठा , भ्रम तथा–
अज्ञान की |
ज्ञान का इक दीप
जल जाए सभी में |
सब अनय के भाव , बन जाएँ –
विनय की रीति कोई ||
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