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न्यायाधीशों एवं न्यायप्रणाली की स्वतंत्रता का प्रश्न ..एक यक्ष-प्रश्न …..डा श्याम गुप्त

drshyam jagaran blog
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न्यायाधीशों एवं न्यायप्रणाली की स्वतंत्रता का प्रश्न ..एक यक्ष-प्रश्न ……

अभी हाल में ही दिल्ली सरकार के नए क़ानून-मंत्री ( जो स्वयं एक एडवोकेट हैं) द्वारा क़ानून-सचिव को सभी न्यायाधीशों की सभा आयोजित करने की इच्छा व आज्ञा पर क़ानून सचिव ( जो स्वयं एक न्यायाधीश हैं)  द्वारा असमर्थता व्यक्त करते हुए इस आयोजन को  सिर्फ उच्च न्यायालय की क्षमता बताया कि न्यायाधीश एवं न्याय -प्रणाली एक स्वतन्त्र संवैधानिक संस्था है अतः न्यायाधीशों की सभा सिर्फ उच्च न्यायालय ही बुला सकता है ..प्रशासन, कार्यपालिका, कानून मंत्री  या मंत्री-परिषद्  को इसका अधिकार नहीं  है |

मूल प्रश्न उठता है कि ….
१.फिर क़ानून मंत्रालय व क़ानून मंत्री किसलिए है ..उसका क्या काम है ?  सरकार- शासन… न्यायपालिका के किसी मूलभूत कार्य के बारे में,  जिससे जनता को सुलभ, सस्ता, शीघ्र न्याय प्राप्त हो अपनी  सदेक्षा, इच्छ, भावना  को किस प्रकार व किससे व्यक्त करे |
२. न्यायाधीश व न्यायालय …की स्वतन्त्रता, स्वायत्तता  का क्या अर्थ है ? वे किसके प्रति उत्तरदायी हैं, उनका भारत की जनता व उसके अधिकारों के प्रति  क्या कर्तव्य है |
मेरे विचार से  एक न्यायाधीश या न्याय-प्रणाली स्वयं में स्वायत्त व  स्वतंत्र संस्था है पर स्वच्छंद नहीं |  वे अपने न्याय के कार्य व  कृतित्व, क़ानून के पालन, क़ानून की व्याख्या जैसे मूलभूत कार्यों में पूर्ण स्वतंत्र हैं बिना किसी भी व्यक्ति या संस्था के परामर्श, आदेश के …परन्तु लोकतंत्र में ,एक स्वायत्त राज्य के न्यायपाल होने के कारण जनता के प्रति वे उत्तरदायी  हैं| यदि जनता को न्याय में देरी या सर्व-सुलभ न्याय, सस्ते न्याय प्रदान हेतु शासन-क़ानून मंत्री कुछ नए नए उपाय व नवीन विचार व तथ्य आदान-प्रदान करना चाहता है तो इसमें कोइ व्यवधान या किसी को भी …न्याय व्यवस्था को भी… आपत्ति नहीं होनी चाहिए |
लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है | न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है…राष्ट्रपति की नियुक्ति जनता व जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ..व शासन, मंत्री,एमपी, विधायक…आदि करते हैं | अतः निश्चय ही न्यायाधीश जनता द्वारा चयनित है एवं उसके प्रति ..उसके प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी   हैं | अतः क़ानून मंत्री को इस विषय पर जजों से परामर्श-सभा करने का अधिकार होना चाहिए | उसकी प्रक्रिया में उच्च-न्यायालय , रजिस्ट्रार, उच्च न्यायाधीश की अनुमति या विशेषज्ञ की भाँति  उपस्थित या अध्यक्षता जैसी प्रक्रियाएं तय की जासकती हैं |
जिस प्रकार अति-विशेषज्ञता  से सम्बन्धित चिकित्सा-संस्था (अथवा किसी भी विशेषज्ञ विषय की संस्था ) होने के कारण प्रत्येक चिकित्सक अपने चिकित्सा कार्य की प्रक्रिया  में स्वाधीन  है उस पर कोइ अंकुश या नियम नहीं हो सकता, परन्तु जनता को उचित, सही, सुलभ, सस्ती  एवं समयानुसार, आवश्यकतानुसार  चिकित्सा कैसे मिले या मिल रही है या नहीं ..इसपर  सरकार व शासन की इच्छा व परामर्श , नीति-नियम आवश्यक हो जाते हैं |
प्राचीन काल में मूलतः न्यायाधीश भी स्वयं राजा ही हुआ करते थे -विक्रमादित्य, भोज आदि  प्रसिद्द न्यायाधीश -राजा हुए हैं|  तत्पश्चात काल में राजा ही न्यायाधीश को नियुक्त करता था एवं स्वयं राजा का न्याय भी न्यायाधीश ही करता था |
यह यक्ष प्रश्न तो है, तर्क व समीक्षाओं, आलोचनाओं, विचार-विमर्श  का विषय  है…. परन्तु लोकतंत्र के और अधिक परिपक्व होने की राह में एक नया भाव-विचार भी |

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